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Thursday, November 12, 2009

इस असंभव समय में

मेरी प्यास
गहरे समंदर में उतर जाती है
जब कहते हो तुम
आओ !
आ जाओ पास ,
नभ का अनंत विस्तार लिए
मेरी निजता
दुबक जाती है
तुम्हारी गोद में
और कई कई आंखों से
देखती हूँ तुम्हे
अनयन होकर ,
तुम्हारी लय पर
थिरकती हूँ मै
देह में विदेह होकर
और पोर पोर पर
मुस्कराते हो तुम
नियम से बेनियम होकर ,
आदिम धुनों में
तुम्हारा अनहद नाद
बजता है मुझमे
और उठती है हिलोर
इस असंभव समय में .

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