मेरे प्रिय रचनाकार की मेरी प्रिय कविता ----
मै हारमोनियम रात के भीतर बजा रहा था
गाना जो था वह अँधेरे में इतनी दूर तक जाता था
कि मै देख नहीं पाता था ,
फिर एक पतली-सी दरार मुझे दिखी
मै उसमें घुस गया
और अँधेरे की दो परतों के बीच नींद में डूबे पानी जैसा
दूर तक दौड़ने लगा ,
वहाँ बीस साल से एक लड़की थी , जो बिना कभी दिखे
सोती जा रही थी
वह जागी तो नहीं लेकिन नींद में ही हँसी ,
अँधेरे में गाना था और पानी जैसा जो बह रहा
वह मैं था ,
फिर तो मैं भी हँसने लगा रात में ही
अँधेरे में छुपा हुआ ,
एक मोटा अधेड़ उम्र का आदमी
साईंबाबा की फोटो के नीचे पिस्ता खा रहा था
उसने बंदूक से मुझे डराया
यों आँखें फाड़कर और मुँह को यूँ -यूँ करके ,
वह तो बाप निकला लड़की का ,जो गुस्से में था
और सो भी नहीं रहा था बीस साल से
लड़की के सपनों की पहरेदारी में
मै क्या करता ? धप्प से कूदकर बाहर निकल आया
और उजाले में डरावने आदमी से नमस्ते करने लगा ,
लेकिन मेरा हारमोनियम तो
रात में ही रह गया था ,बहुत पीछे
और वह बज रहा था
और लड़की हँसे क्यों जा रही थी
यह कहना मुश्किल था ।
Saturday, December 25, 2010
Monday, December 13, 2010
अम्मा
आज जब पिता नहीं हैं
अम्मा कुछ ज्यादा ही
जोड़ -घटाव करती हैं
रात-दिन, उन दिनों का,
पिता की चौहद्दी में
वे कभी भारहीन, भयमुक्त न थीं
वहाँ मुकदमों की अनगिनत तारीखें थीं
या फिर फसल की चिंताएँ
बुहारते ही बीता उन्हे -
अनिश्चय , अकाल,
हाँ, जब -जब नाना आते थे
जरूर तब हंसती थीं अम्मा
वेवजह भी ओढ़े रहती थीं मुस्कान
पिता भी तब बरसते नहीं थे उनपर
कुछ दिन संतुलित रहती थी हवा
थोड़े दिनों के लिए ही सही
अम्मा को भी अपना नाम याद रहता था ,
उन्हे याद आती है -
पीतल की वह थाली
जिसे पटक दी थी पिता ने
दाल मे नमक ज्यादा होने पर
अब भी गूँजती रहती है घर में
थाली के टूटने की आवाज़
उन टुकड़ों को अब भी
जब -तब बीनती रहती हैं अम्मा ...।
अम्मा कुछ ज्यादा ही
जोड़ -घटाव करती हैं
रात-दिन, उन दिनों का,
पिता की चौहद्दी में
वे कभी भारहीन, भयमुक्त न थीं
वहाँ मुकदमों की अनगिनत तारीखें थीं
या फिर फसल की चिंताएँ
बुहारते ही बीता उन्हे -
अनिश्चय , अकाल,
हाँ, जब -जब नाना आते थे
जरूर तब हंसती थीं अम्मा
वेवजह भी ओढ़े रहती थीं मुस्कान
पिता भी तब बरसते नहीं थे उनपर
कुछ दिन संतुलित रहती थी हवा
थोड़े दिनों के लिए ही सही
अम्मा को भी अपना नाम याद रहता था ,
उन्हे याद आती है -
पीतल की वह थाली
जिसे पटक दी थी पिता ने
दाल मे नमक ज्यादा होने पर
अब भी गूँजती रहती है घर में
थाली के टूटने की आवाज़
उन टुकड़ों को अब भी
जब -तब बीनती रहती हैं अम्मा ...।
Monday, November 22, 2010
इस बार .........
Thursday, October 28, 2010
याद
जैसे, हवा आई चुपके से
और रच... गई साँस ,
बिना किसी आहट के
जैसे, दाखिल हुई धूप
कमरे मे
और भर गई उजास ,
जैसे खोलकर पिंजड़ा
उड़ गया पंक्षी
आकाश मे
और पंखों मे समा गया हो
रंग नीला- नीला ,
जैसे, झरी हो ओस
बिल्कुल दबे पाँव
और पसीज गया हो
मन का शीशा
उजली सी दिखने लगी हो
पूरी दुनिया.....,
जैसे ,गर्भ मे हंसा हो भ्रूण
और धरती की तरह गोल
माँ की कोख मे
मचला हो नृत्य के लिए ....!
Saturday, October 2, 2010
उपस्थिति
Wednesday, September 8, 2010
पावस रोज ही
भीगना
सिर्फ पावस में ही नहीं होता
उसकी बातें
भिगोती हैं
रोज ही
धरती की तरह
धानी चूनर
ओढ़ लेती हूँ मैं ।
सिर्फ पावस में ही नहीं होता
उसकी बातें
भिगोती हैं
रोज ही
धरती की तरह
धानी चूनर
ओढ़ लेती हूँ मैं ।
Friday, August 20, 2010
समुद्र पर हो रही है बारिश
"लखनऊ शहर की शान श्री नरेश सक्सेना जी की यह कविता मेरी पसंदीदा कविताओं मे से एक है ,जिसे मैंने रूबरू उन्हे पढ़ते हुये भी सुना है , और यह कविता उनके एकमात्र कविता संकलन का टाइटिल भी है"
क्या करे समुद्र
क्या करे इतने सारे नमक का
कितनी नदियाँ आयीं और कहाँ खो गई
क्या पता
कितनी भाप बनाकर उड़ा दीं
इसका भी कोई हिसाब उसके पास नहीं
फिर भी संसार की सारी नदियाँ
धरती का सारा नमक लिए
उसी की तरफ दौड़ी चली आ रही हैं
तो क्या करे
कैसे पुकारे
मीठे पानी मे रहने वाली मछलियों को
प्यासों को क्या मुँह दिखाये
कहाँ जाकर डूब मरे
खुद अपने आप पर बरस रहा है समुद्र
समुद्र पर हो रही है बारिश
नमक किसे नही चाहिए
लेकिन सबकी जरूरत का नमक वह
अकेला ही क्यों ढोये
क्या गुरुत्त्वाकर्षण के विरूध्द
उसके उछाल की सजा है यह
कोई नहीं जानता
उसकी प्राचीन स्मृतियों मे नमक है या नही
नमक नहीं है उसके स्वप्न मे
मुझे पता है
मै बचपन से उसकी एक चम्मच चीनी
की इच्छा के बारे मे सोचता हूँ
पछाड़े खा रहा है
मेरे तीन चौथाई शरीर मे समुद्र
अभी -अभी बादल
अभी -अभी बर्फ
अभी -अभी बर्फ
अभी -अभी बादल ।
--- नरेश सक्सेना
क्या करे समुद्र
क्या करे इतने सारे नमक का
कितनी नदियाँ आयीं और कहाँ खो गई
क्या पता
कितनी भाप बनाकर उड़ा दीं
इसका भी कोई हिसाब उसके पास नहीं
फिर भी संसार की सारी नदियाँ
धरती का सारा नमक लिए
उसी की तरफ दौड़ी चली आ रही हैं
तो क्या करे
कैसे पुकारे
मीठे पानी मे रहने वाली मछलियों को
प्यासों को क्या मुँह दिखाये
कहाँ जाकर डूब मरे
खुद अपने आप पर बरस रहा है समुद्र
समुद्र पर हो रही है बारिश
नमक किसे नही चाहिए
लेकिन सबकी जरूरत का नमक वह
अकेला ही क्यों ढोये
क्या गुरुत्त्वाकर्षण के विरूध्द
उसके उछाल की सजा है यह
कोई नहीं जानता
उसकी प्राचीन स्मृतियों मे नमक है या नही
नमक नहीं है उसके स्वप्न मे
मुझे पता है
मै बचपन से उसकी एक चम्मच चीनी
की इच्छा के बारे मे सोचता हूँ
पछाड़े खा रहा है
मेरे तीन चौथाई शरीर मे समुद्र
अभी -अभी बादल
अभी -अभी बर्फ
अभी -अभी बर्फ
अभी -अभी बादल ।
--- नरेश सक्सेना
Saturday, July 31, 2010
वह पूछता है ...
Saturday, July 17, 2010
तुम्हारी बारिश में.......
चाहती हूँ नहाना
सिर से पाँव तक
तुम्हारी बारिश में,
तुम्हारे शब्दों की परतों में
चाहती हूँ फैल जाना
शबनमी छुअन बनकर
उलीच देना है मुझे
उनके बीच समंदर,
तुम्हारी बाँहों के बादल
उमड़-घुमड़ कर आए हैं
तरल गलबांह में प्रिय
बांध लेना है सकल आकाश,
तुम्हारे अधरों की बूँदें
बो रहीं रोमांच
हवा की देह पर
रोप देना है नदी की धार,
तुम्हारे मन के मेघो में
इतनी मिठास ! इतनी मिठास !
भिगो देना है समूची सृष्टि को
उसी में दिन रात ।
सिर से पाँव तक
तुम्हारी बारिश में,
तुम्हारे शब्दों की परतों में
चाहती हूँ फैल जाना
शबनमी छुअन बनकर
उलीच देना है मुझे
उनके बीच समंदर,
तुम्हारी बाँहों के बादल
उमड़-घुमड़ कर आए हैं
तरल गलबांह में प्रिय
बांध लेना है सकल आकाश,
तुम्हारे अधरों की बूँदें
बो रहीं रोमांच
हवा की देह पर
रोप देना है नदी की धार,
तुम्हारे मन के मेघो में
इतनी मिठास ! इतनी मिठास !
भिगो देना है समूची सृष्टि को
उसी में दिन रात ।
Sunday, June 20, 2010
थिरकती हूँ मै अहर्निश
एक धुन है
जो लिपिहीन होकर
गूँजती रहती है निरंतर
अपनी व्याप्ति मे विलक्षण
उसकी लय पर
थिरकती हूँ मै अहर्निश ,
एक धुन है
जो छंदहीन होकर
आरोहों अवरोहों से परे
अपनी त्वरा मे तत्पर
विहगगान सी
टेरती रहती है भीतर ,
एक धुन है
जो नामहीन होकर
सुरों से निर्लिप्त
सरगमों मे डूबी
स्वरों के व्याकरण से दूर
रचती रहती है मधुर स्वर ,
एक धुन है
जो डोरहीन होकर
बंधी रहती है पतंग सी
गगन को नापती
करती अपनी ही प्रदक्षिणा
फूँकती रहती है अपने हिस्से की बाँसुरी ।
जो लिपिहीन होकर
गूँजती रहती है निरंतर
अपनी व्याप्ति मे विलक्षण
उसकी लय पर
थिरकती हूँ मै अहर्निश ,
एक धुन है
जो छंदहीन होकर
आरोहों अवरोहों से परे
अपनी त्वरा मे तत्पर
विहगगान सी
टेरती रहती है भीतर ,
एक धुन है
जो नामहीन होकर
सुरों से निर्लिप्त
सरगमों मे डूबी
स्वरों के व्याकरण से दूर
रचती रहती है मधुर स्वर ,
एक धुन है
जो डोरहीन होकर
बंधी रहती है पतंग सी
गगन को नापती
करती अपनी ही प्रदक्षिणा
फूँकती रहती है अपने हिस्से की बाँसुरी ।
Saturday, May 29, 2010
मैं बरतती हूँ तुम्हें ऐसे......
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
हवा बरतती है सुगंध को
और दूब की नोक से चलकर
पहुचती है शिखर पर ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
जल बरतता है मिठास को
और घुलकर घनी भूत होकर
मिटाता है युगों की प्यास ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
धरती बरतती है हरी घास को
और उसकी हरियाली में
लहालोट हो छुपा लेती है चेहरा ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
उमंगें बरतती है उद्दाम को
और अपनी बाहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश
जैसे
हवा बरतती है सुगंध को
और दूब की नोक से चलकर
पहुचती है शिखर पर ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
जल बरतता है मिठास को
और घुलकर घनी भूत होकर
मिटाता है युगों की प्यास ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
धरती बरतती है हरी घास को
और उसकी हरियाली में
लहालोट हो छुपा लेती है चेहरा ,
मैं बरतती हूँ तुम्हे ऐसे
जैसे
उमंगें बरतती है उद्दाम को
और अपनी बाहों में
भर लेना चाहती हैं समूचा आकाश
Thursday, May 6, 2010
तुम्हारी आवाज .......
नदी की लहरों पर
खुशी की धूप उगती है
जब वह छूती है
तुम्हारी आवाज ,
उसकी उदास लहरें
पहन लेतीं हैं तुम्हारी महक
नदी नहाती है अपनी ही
भूली बिसरी चाहतें ,
भीग जाती है नदी
उस धूप की मिठास में
स्थगित धुनें सुर साध लेती हैं
और नदी उस सरगमी नमी मे
उमगकर डूब जाती है ,
बर्फीले सपनों को मिलती है
नरम धूप की अंकवार
हाँ तुम्हारे आवाज की छुवन
नदी के भीतर पिघला देती है
सुखों का पूरा ग्लेशियर ।
खुशी की धूप उगती है
जब वह छूती है
तुम्हारी आवाज ,
उसकी उदास लहरें
पहन लेतीं हैं तुम्हारी महक
नदी नहाती है अपनी ही
भूली बिसरी चाहतें ,
भीग जाती है नदी
उस धूप की मिठास में
स्थगित धुनें सुर साध लेती हैं
और नदी उस सरगमी नमी मे
उमगकर डूब जाती है ,
बर्फीले सपनों को मिलती है
नरम धूप की अंकवार
हाँ तुम्हारे आवाज की छुवन
नदी के भीतर पिघला देती है
सुखों का पूरा ग्लेशियर ।
Thursday, April 15, 2010
तुम्हारे नाम का जल
तुम्हारा नाम
अपने अर्थ की आभा में
चमकता है
जैसे अपने नमक के साथ
धीर धरे सागर हो ,
धैर्य की अटूट परम्परा में
तुम्हारे नाम का वजूद
समय के ठोस अँधेरे को भेदकर
रौशनी की तरह फैलता है
और मै कतरा कतरा नहा उठती हूँ ,
तुम्हारे नाम की बारिश में
बिना छतरी के
मै भीगती हूँ ;नंगे पांव ,
साइबेरियन पंछियों की तरह
तुम्हारे नाम का जल
क्यूँ बुलाता है मुझे बार बार
मै चली आती हूँ मीलों मील
बिना रुके बिना थके
तुम्हारे नाम का अर्थ
धारण किये
तुझमे विलीन होने को आतुर
मै सदानीरा .
Wednesday, March 24, 2010
अयोध्या के राम
चौदह कोसी अयोध्या में
आतें हैं तीर्थ यात्री
परिक्रमायें करते हैं नंगे-पांव
उनके पाओं के साथ
चलती है अयोध्या
डोलते है राम
आस्था के जंगल में
छिलते हैं पाओं के छाले
रिसता है खून
तीर्थ यात्री
दुखों की गठरियाँ ढ़ोते हैं सिर पर
उफनती है सरयू
की धो दें उनके पांव
उमगती है हवा
की सुखा दे उनके घाव
पर उनकी परिक्रमा
कल भी अनवरत थी
आज भी अनवरत है
सदियों तक होगी यूँ ही
चौदह कोसी खोज राम की.
Friday, March 12, 2010
चाहना...
Saturday, February 20, 2010
पात्रता
मै ऐसे लोक मे आ गई हूँ
जिसका ईश्वर और नागरिक
सिर्फ एक है
उसकी अंतहीन सीमाओं मे
मेरा वजूद
ले चुका है प्रवेश
बिना किसी प्रवेशपत्र के
जहाँ परिभाषाएं नदारद हैं
शब्द अनुपस्थित हैं और
उस अदृश्य धारावाहिक में
मेरी पात्रता युगों से तय है
वहाँ न कथानक है
न ही कोई संवाद
वहाँ समूची कथा कह रहा है
हमारे तुम्हारे मध्य का मौन .
(दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित )
Sunday, February 7, 2010
एक छाँव
मेरे प्रेम की गठरी में
थोड़े शब्द हैं
तो ढेर सारा मौन है
कुछ उदासियाँ हैं
तो अनंत हसीं है
मेरी इस गठरी में
दुबकी है कई अजन्मीं खुशियाँ,
मेरे प्रेम की गठरी में
कच्चे-पक्के रास्ते हैं
तो जंगली पगडंडियाँ भी हैं
मेरे वहाँ कस्तूरी बस्ती है
वन-वन भटकती नहीं
मेरे पास
मृगछौने सा समय करता है किलोल,
मेरे प्रेम की गठरी में
चुटकी भर ठिठुरन है
तो अंजुरी भर धूप है
मेरी इस पोटली में
एक ऐसी छीनी है
जिससे हो सकता है आसमान में सुराख,
मेरे प्रेम की गठरी में
एक छाव है जहां
सुस्ताता है उस पार का बटोही
मेरे यहाँ हुआ करती हैं
तृप्ति की कई-कई नदियाँ
मेरे पास लहरों की पूरी कथा है
मैंने अपनी गठरी में बाँधा है
एक नई धरती एक नया आसमान।
( लखनऊ दूरदर्शन से प्रसारित )
Wednesday, January 20, 2010
वसंत के लिए
यदि ला सको तो
ला देना
अपनी अनुपस्थिति का अंजन
अपने स्पर्श का पीत- वसन
अपनी दृष्टि का अंगराग
साथ में लाना
कुछ फूल स्मित के
वसंत के लिए ,
ला सको तो
लाना
अपनी बांहों का कंठहार
अपने चुम्बनों का गीत
सहमे समय के लिए
धडकनों की निर्द्वंद धुन
और ढेर सारी उम्मीद भी
वसंत के लिए ,
कुछ जगह बनाकर
जरुर लाना
ठूंठ हुई उम्र के लिए
नई नर्म कोंपलें
अंधेरों के लिए
थोडा सा सूरज
तपते वक्त के लिए
थोड़ी सी चांदनी
लाना
वसंत के लिए .
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