Pages

Sunday, June 20, 2010

थिरकती हूँ मै अहर्निश

एक धुन है 
जो लिपिहीन होकर 
गूँजती रहती है निरंतर 
अपनी व्याप्ति मे विलक्षण
उसकी लय पर 
थिरकती हूँ मै अहर्निश ,
एक धुन है 
जो छंदहीन होकर 
आरोहों अवरोहों से परे
अपनी त्वरा मे तत्पर 
विहगगान सी 
टेरती रहती है भीतर ,
एक धुन है 
जो नामहीन होकर 
सुरों से निर्लिप्त 
सरगमों मे डूबी 
स्वरों के व्याकरण से दूर 
रचती रहती है मधुर स्वर ,
एक धुन है 
जो डोरहीन होकर 
बंधी रहती है पतंग सी 
गगन को नापती 
करती अपनी ही प्रदक्षिणा 
फूँकती रहती है अपने हिस्से की बाँसुरी ।    

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails