नदी के भीतर
जब वसंत में बहती है वो ,
बेसुध हवा भटकती है
बंजारन गंध लिए
नदी में घुलती है जब
वो मधुमय गंध
नदी भी समूची
बंजारन हो जाती है ,
फूलों को देखने के बाद भी
बचा रहता है
बहुत कुछ देखने जैसा
अनकहा ;अकथ अभिप्राय
उनमन नदी नहाती है
सौंदर्य के वे अनगिन पल
और उस अकथ की
सारी अंतर्कथा,
सभ्यता की चौखटों से दूर
तितलियाँ अलमस्त उड़ती हैं
यहाँ से वहाँ पराग लिए
अपनी स्निग्ध लहरों में
धुन बांध बहती है नदी
सरगम नदी !