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Saturday, April 23, 2011

नदी के आईने में


प्रेम करती हूँ तुम्हे
प्रेम करती हूँ तुम्हे ...!
सघन पेड़ों के बीच जैसे
हवा सुलझाती है अपने को,
चमकता है चाँद 
फास्फोरस की तरह
नदी के घुमक्कड़ पानियों पर,
पीछा करते एक दूजे का
तुम्हारी याद ;और चाँद
खूब छप-छप करते हैं
नदी की देह में,
एक चमकीली समुद्री चिडिया सी
मैं उठ जाती हूँ कभी-कभी 
भोर ही में
भीगी होती है मेरी आत्मा
सबसे बड़ा तारा मुझे
तुम्हारी नज़र से देखता है
और जैसे मैं तुम्हे प्यार करती हूँ
अपनी बांहों को शून्य में लपेटकर
हवाओं में भर जाता है संगीत,
देवदार गाना चाहते हैं तुम्हारा नाम
अपने पत्तों के नर्तन से
तुम्हे संदेश भेजते हुए,
नदी के आईने में
देवदार झूमते है
और झिलमिल जल में
तैरता है तुम्हारा चेहरा ...!

Tuesday, April 5, 2011

एक दिन अचानक

जब पहली बार मिले थे हम  
थर-थर कांपती 
लिपियों के बीच मिले थे 
तुमने मुझे 
मेरे नाम से पुकारा था 
बहुत धीमे 
लगभग फुसफुसा कर,
और उन्ही दुबली लिपियों से 
रचा था हमने महाकाव्य ,
भाषा के मौन घर में 
छुप गये थे हम 
डरे हुए परिंदों की तरह, 
फिर एक दिन अचानक 
सुबह सुबह 
कलरव शुरू हुआ 
अपने आप
और आसमान भर गया 
अनगिन इन्द्रधनुषों से . 

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