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Sunday, May 15, 2011

बन्द लिफाफा


मेरे मौन की अज्ञात लिपि में 
पिरो दिये हैं तुमने 
कुछ भीगे अक्षर 
बोलो ! मैं इनका क्या करूँ 
जबकि ;मैं घर पर नहीं थी 
और डाकिया डाल गया
एक बन्द लिफाफा 
जिसके भीतर 
एक नदी है 
असंख्य आवेगों से भरी 
उसकी बूँदों के वर्ण 
लिख रहे हैं 
कथा समंदर की 
उसकी लहरें 
समेटें हैं अपने आँचल में 
झिलमिल चाँदनी 
और चाँद की महक ,
अब तो इतना समय भी नहीं 
कि वापस भेज दूँ नदी को 
जहाँ से वो आई है 
या कह दूँ कि 
चलो चुपचाप बहती रहो 
भीगने मत देना एक तिनका भी 
ऐसा हो सकता है भला ?
कि नदी बहती रहे 
और धरती गीली न हो ! 

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