थर -थर काँपती
लिपियों के बीच
मिले थे हम,
तुमने मुझे
मेरे नाम से पुकारा था
बिल्कुल धीमे
लगभग फुसफुसाकर
और उन्ही दुबली लिपियों से
रचा था हमने महाकाव्य ,
भाषा के मौन घर में
छुप गए थे हम
डरे हुये परिंदों की तरह
चहचहाना भूलकर
बस देखना ही शेष था,
अगल बगल बैठे थे
पर दूर कहीं खोये थे
एक दूसरे के सपनों में ,
सपनों के भीतर
आत्मा की आँच थी
ताप रहे थे जिसे
दोनों हथेलियाँ फैलाए
समय की बीहड़ उड़ानों में ,
मेरी त्वचा पर
खुदा था तुम्हारा नाम
जिसे पहचान गए थे तुम
उस एक ही अक्षर में...
जन्मों के गीत रचे थे
एकांत के रंगों में
जिसे हम गा रहे थे
चुप्पियों के बीच,
सरगम की यात्रा
धुनों की बारिश में
भीग गए थे हम
बाँसुरी के स्वरों में,
ठीक उसी वक्त
क्रोंच-बध हुआ था
लहूलुहान हुई थी धरती
और टूटती साँसों के बीच
जन्मे थे बुद्ध ...।