जब बोलना निहायत जरूरी था
कुछ लोग चुप थे
लिपियों के लिबास में
तरह -तरह की चुप्पियाँ थीं
लम्बी सुरंग से जिस तरह गुजरती है ट्रेन
गुजर रहे थे लोग भाषाओं से होकर
गुफाओं में कराह रहे थे कुछ अर्थ
जैसे घायल शेर पड़े हों खूंखार
गीदड़ों की हुक्का हुआं
उल्लुओं के मनहूस स्वर
और पता नहीं बिल्लियाँ
रो रही थीं या गा रही थीं
अक्षर नहीं उनकी जगह अखबारों में
चमगादड़ आकर लटक गये थे
कहकहे भी थे
दुर्गन्ध फैलाते हुये
चोर की तरह
सेंध लगा रहे थे कुछ शब्द
फुसफुसाहटों में बदल चुकी थीं अस्मिताएं
सूखने लगी थी नदी
दरकने लगे थे पहाड़
चिटकने लगी थी धरती
गर्द से भर गया था पूरा आसमान ।