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Friday, August 26, 2011

चुप्पियाँ


जब बोलना निहायत जरूरी था 
कुछ लोग चुप थे 
लिपियों के लिबास में 
तरह -तरह की चुप्पियाँ थीं 
लम्बी सुरंग से जिस तरह गुजरती है ट्रेन 
गुजर रहे थे लोग भाषाओं से होकर 

गुफाओं में कराह रहे थे कुछ अर्थ 
जैसे घायल शेर पड़े हों खूंखार 
गीदड़ों की हुक्का हुआं 
उल्लुओं के मनहूस स्वर 
और पता नहीं बिल्लियाँ 
रो रही थीं या गा रही थीं 

अक्षर नहीं उनकी जगह अखबारों में 
चमगादड़ आकर लटक गये थे 
कहकहे भी थे 
दुर्गन्ध फैलाते हुये 

चोर की तरह 
सेंध लगा रहे थे कुछ शब्द 
फुसफुसाहटों में बदल चुकी थीं अस्मिताएं 
सूखने लगी थी नदी 
दरकने लगे थे पहाड़ 
चिटकने लगी थी धरती 
गर्द से भर गया था पूरा आसमान ।    

Monday, August 1, 2011

चिट्ठी


वह लिखता है-- 
वहाँ बारिश हो रही है 
और मै भीगती हूँ यहाँ 
अहर्निश...,
वह लिखता है-- 
मै जल्द ही बात करूँगा 
और मेरी आत्मा नहा उठती है 
जैजैवन्ती की धुनों से...,
वह लिखता है-- 
कुछ मुश्किलें हैं 
और मै बाँहें फैलाकर 
बटोर लेना चाहती हूँ 
उसके सारे दुःख...,
वह लिखता है-- 
मै मिलने आऊँगा 
और मै थिरकती हूँ 
पृथ्वी के इस छोर से उस छोर तक...।

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