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Monday, October 1, 2012


पहले -पहल जब 
धरती कुनमुनाई थी 
उसकी गोद मे गिरा था बीज 
वृक्ष होने के लिए 
तब से बंद हूँ मै 
तुम्हारी हथेलियों मे,

पहले पहल जब 
हवा जन्मी थी 
सहेजा था उसने सुगंध 
बनाई थी सांस 
तब से बंद हूँ मै 
तुम्हारी हथेलियों मे,

पहले पहल जब 
बादल उगे थे 
उतरी थीं नदियाँ 
समंदर को गले लगाकर 
बुझाई थी प्यास 
तब से बंद हूँ मै
तुम्हारी हथेलियों मे,

------ सुशीला पुरी 

Sunday, April 22, 2012

रोना


तुमने पूछा था
क्या बचपन से तुम
इसी तरह रोती रही हो !
और सोचने लगी मै
उस समय के बारे में
जब हम
बिना रोये हुआ करते थे

रोने की जगह
हंसना होता था तब;
बात- बेबात बस
हँसते जाते पागलों की तरह
और हमारी हंसी में
शामिल हो जाती थी
पूरी दुनिया,

हँसने की जगह तब
रोना नहीं बना था शायद
उन दिनों हमारी हंसी में
चाँद ,सूरज ,नदी, पहाड़
सभी शामिल थे ;

घरों के भीतर की जगह भी
तब हँसती रहती थी
आँगन से आकाश तक
हँसने में साथ होते थे हमारे,
हँसते समय तब मै
बड़ी निश्चिंत होती थी
सोचती-
यह कहीं नहीं जाएगी;

दुनिया के किसी भी कोने में तब
हंसा जा सकता था बेखौफ,
फिर चुपचाप जाने कब
बदलता चला गया सब
हँसने की जगह
रोना आता गया
शुरू में सिर्फ पलकें नम होती थीं
फिर ज़ोर ज़ोर से रोना हुआ
हाँलाकि पहले शर्म भी आती थी रोने में
तो छुप छुप कर रोती,

ज़ोर ज़ोर के रोने में
नामित थीं कई जगहें
कभी अयोध्या कभी मेरठ
कभी गोधरा तो कभी गुजरात,
अब तो हर वक्त डर बना रहता है
ऐसा लगता है कि स्टेशन -मास्टर
अभी भी छुपाये बैठा है
उस जलती रेलगाड़ी के टिकट
कभी भी
वह काटने लगेगा टिकट,

डर लगा रहता है कि कहीं
रोना भी न छिन जाये हमसे
और गिने चुने लोग
जो शामिल हैं रोने में
रोने को हंसना न समझ बैठें;
वैसे भी
रोने जैसा रोना भी कहाँ रहा अब !?!

Tuesday, February 14, 2012

तुम्हारा होना

अनवरत गड्ड-मड्ड समय है 
जिसमें तुम्हारा होना भर रह गया है शेष 
सब कुछ भूल चुकी हूँ 
यहाँ तक कि भाषा भी 
सिर्फ मौन है 
और तुम हो 
तुम्हे बटोरती हूँ 
जैसे हरसिंगार के फूल 
और उनकी महक से 
भीगती हूँ भीतर ही भीतर,
कई बार धूसर उदासियों में 
तुम बरसते हो आँखों से 
और तुम हो जाते हो मेघ 
अहर्निश कुछ अस्फुट शब्द 
बुद्बुदातें हैं मेरे होंठ 
और मैं समूचे अंतरिक्ष में 
ठिठक कर खोजती हूँ खुद को,
ब्रह्माण्ड में बचा है सिर्फ 
मेरा कहना 
और तुम्हारा सुनना
ईश्वर अपने गूंगेपन पर चकित है 
और तुम्हारे-मेरे शब्दों के बीच का मौन 
सुन्दर अंतरीप में बदल रहा है 
जहाँ फैले हैं अनगिनत उजाले 
नई व्यंजनाओं के साथ,
देह के भीतर का ताप 
दावानल बन जलाता नहीं 
तुम्हारा होना 
आत्मा को धीमी आंच पर सिझाता है 
और अबूझ आहुतियों से गुजरकर मैं 
बार बार उगने की प्रक्रिया में हूँ !     

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