Pages

Tuesday, February 14, 2012

तुम्हारा होना

अनवरत गड्ड-मड्ड समय है 
जिसमें तुम्हारा होना भर रह गया है शेष 
सब कुछ भूल चुकी हूँ 
यहाँ तक कि भाषा भी 
सिर्फ मौन है 
और तुम हो 
तुम्हे बटोरती हूँ 
जैसे हरसिंगार के फूल 
और उनकी महक से 
भीगती हूँ भीतर ही भीतर,
कई बार धूसर उदासियों में 
तुम बरसते हो आँखों से 
और तुम हो जाते हो मेघ 
अहर्निश कुछ अस्फुट शब्द 
बुद्बुदातें हैं मेरे होंठ 
और मैं समूचे अंतरिक्ष में 
ठिठक कर खोजती हूँ खुद को,
ब्रह्माण्ड में बचा है सिर्फ 
मेरा कहना 
और तुम्हारा सुनना
ईश्वर अपने गूंगेपन पर चकित है 
और तुम्हारे-मेरे शब्दों के बीच का मौन 
सुन्दर अंतरीप में बदल रहा है 
जहाँ फैले हैं अनगिनत उजाले 
नई व्यंजनाओं के साथ,
देह के भीतर का ताप 
दावानल बन जलाता नहीं 
तुम्हारा होना 
आत्मा को धीमी आंच पर सिझाता है 
और अबूझ आहुतियों से गुजरकर मैं 
बार बार उगने की प्रक्रिया में हूँ !     

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails